मैंने अपनी पत्रकारिता के 25 साल में पत्रकारों की इतनी बुरी हालत पहली बार देखी है सच पूछा जाये तो इस हालत के लिये पत्रकार स्वयं जिम्मेदार है। आप सभी को यह सुनकर अजीब सा लग रहा होगा। लगना भी चाहिये क्यों कि कोई अपने प्रोफेशन के बारे में ऐसा नहीं बोल सकता है। कारण यह है कि हमारे प्रोफेशन में सभी लोग काफी मतलबी है। कोई किसी भी परेशान पत्रकार की बात को समर्थन नहीं करता है। बल्कि यह सोच कर मन ही मन खुश होता है कि अच्छा हुआ फसं गया बहुत ज्यादा इमानदारी और नैतिकता की बात करता था। यह बात मैं उन तथा कथित पत्रकारों की कर रहा हूं जिनको पत्रकारिता से दूर दूर का कोई वास्ता नहीं उनको तो सचिवालय और मंत्रियों की परिक्रमा करनी होती है। आईएएस लॉबी में अपनी पैठ बनानी होती है। खासतौर से पत्रकार संघों और एसोसियेशन के पदाधिकारियों का काम साल में दो चार बार अपने कार्यक्रमों मंत्रियों और राजनेताओं को बुला कर अपनी वाह वाही लूटनी होती है। लेकिन वो अपनी एसोसियेश के सदस्यों की तकलीफों और समस्याओं के प्रति संवेदनहीन होते है।
इस साल यह देखा गया है कि जिस किसी पत्रकार और ईमानदार अफसर ने अपनी आत्मा की आवाज को गिरवी न रखते हुए सरकार से सवाला किये उसे सरकार के गुस्से का शिकार होना पड़ा है। ऐसे मामले यूपी में कुछ ज्यादा ही देखने को मिले है। चाहे वो मिर्जापुर के सोनभद्र का मिड डे मील के भ्रष्टाचार का मामला हो या वाराणसी मे लॉकडाउन में गरीब लोगों की दुर्दशा का उजागर करने का मामला हो इन दोनों ही मामलो में सरकार के इशारों पर पुलिस मामले दर्ज कर पत्रकारों का उत्पीड़न किया है। देवरिया में एक सरकारी अस्पताल में एक नाबालिग बच्ची से फर्श साफ कराने का मामला उस वक्त सोशल मीडिया में वायरल हुआ जब वीडियो जर्नलिस्ट ने मोबाइल से इस घटना का वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर डाल दिया था। इस पत्रकार को भी पुलिस व स्थानीय प्रशासन की ज्यादती का सामना करना पड़ा।
पुलिस की हिम्मत इतनी बढ़ गयी है किसी भी समय किसी पत्रकार को घर से उठा लाती है। कोई भी टटपूंजिया सत्तादल का नेता किसी भी थाने में जा कर किसी पत्रकार के खिलाफ मानहानि का मुकदमा कायम करा देता है और पुलिस उस पत्रकार को एक मुजरिम की तरह खींच कर थाने ला पटकती है। हद तो तब हो गयी कि जब हिन्दू समाचार पत्र के एक वरिष्ठ पत्रकार को प्रेस कान्फ्रेंस के बाद यूपी की राजधानी में बिना किसी वारंट के उठा ले जाती है और घंटों उससे पूछताछ की जाती है। बाद में दबाव पड़ने पर उसे थाने से छोड़ा जाता है। यूपी के एक जिले में बीबीसी के एक पत्रकार को स्थानीय पुलिस घंटों बंधक बनाये रखा। यह सब मामले भाजपा शासित प्रदेशों ज्यादा देखने को मिल रहे है।
विनोद दुआ का भी मामला देखा गया जिसमे बीजेपी के नेताओं के कहने पर उनके खिलाफ हिमाचल और दिल्ली में संगीन धाराओं में मामला दर्ज कराया गया। चूंकि दुआ एक बहुत बड़े और प्रभावी पत्रकार हैं उनके समर्थन में चंद लोगों ने आवाज भी उठायी। स्क्रॉल की महिला पत्रकार ने अपनी स्टोरी में वाराणसी के एक गांव की रिपोर्टिंग में स्थानीय दलित लोगों से बातचीत दर्ज की थी। यह पीएम मोदी का संसदीय क्षेत्र है। वहां के बारे में ऐसे हालात की जानकारी जब उनके समर्थकों को पता चली तो उन्होंने महिला पत्रकार के खिलाफ मामला दर्ज कराते हुए उसके खिलाफ मुहिम छोड़ दिया। यह चंद मामले हैं जो हाईफाई पत्रकारों से संबंध रखते हैं। लेकिन उन पत्रकारों का क्या जो छोटे इलाकों में रह कर ईमानदारी से पत्रकारिता कर रहे है।
सबसे दुर्भाग्य की बात तो यह है कि जब किसी वकील या डाक्टर का उत्पीड़न होता है तो उनकी एसोसियेशन सीना ठोक कर अपने साथी की लड़ाई लड़ने के लिये सड़क पर उतर जाते हैं। लेकिन पत्रकार की लड़ाई उसे अपनी बूते पर ही लड़नी होती है कोई भी संस्था और एसोसियेशन उनकी मदद को आगे नहीं आती है। ऐसे मौके पर वो अपने हाथ खड़े कर देते है। प्रेस क्लब और ऐसोसियेशन केवल अपने उल्लू सीधा करने के लिये अपने पीछे चमचों की भीड़ बनाये रखते हैं जिसके बल पर वो नेताओं और मंत्रियों से अपने निजी काम कराने प्रयासरत रहते है।
अब शायद आप लोग मेरी बात से सहमत होंगे कि पत्रकारों की बदहाली के लिये उनकी जमात के चंद ठेकेदार ही जिम्मेदार हैं। यही वजह है कि राजनीतिक लोग पत्रकारों के आगे चंद टुकड़े फेंक कर अपनी जुतियां चटवा रहे है।