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मुझे यह समझ में आज तक नहीं आया कि सिर्फ होली के दिन ही सब लोग क्यों चिल्लाते हैं कि दीपावली पर कोई यह नहीं कहता है कि दीपावली है। खैर ये बात तो छोड़िये कि होली बार बार क्यों याद दिलायी जाती है कि होली है। लेकिन यह पर्व होता बड़ा जोशीला और मनोरंजक होता है। आदमी पर फागुन का रंग चढ जाता है न उम्र की परवाह और न ही शर्म ओ हया की झिझक। आज भी जब बचपन की याद आती है तो बरबस होठ मुस्करा उठते हैं। वो भी कैसे दिन थे कि होली के आने से एक सप्ताह पहले ही होली की मस्ती बच्चों में पर रंग खेलने की खुमारी दिखने लगती थी। होली जलाने की तैयारी भी 15 दिन पहले ही शुरू हो जाती थी। अपने घर के पास ही होली जलायी जाती थी। यह बहस रहती कि सबसे ऊंची और देर तक कहां की होली जलेगी। इसके लिये आसपास के खेत में घुस कर वहां पुरानी लकड़ी और पेड़ के साथ कंडों को चुरा कर लाते थे। और पूरी रात लड़कों की टोली आस पास के मोहल्लों में चक्कर लगाते घूमते थे। इसी दिन मम्मी होली का विशेष पकवान गुझिया बनाती थी। इधर उधर से आते और दोनों हाथों में गुझिया ले कर बाहर की ओर दौड़ लगा देते थे। उन दिनों आठ दस दिनों तक गुझिया और कचरी चिप्स पापड़ तल कर खाये जाते थे। आजकल किसी भी त्योहार में कोई रुचि नहीं रह गयी है। त्यौहार के नाम पर पूरी सब्जी और कुछ मिठाइयां बन जाती हैं। उनको भी डर डर कर खाया जाता है कि कहीं शूगर न बढ़ जाये। बचपन में तो खेल खेल में सब पच जाता था। लेकिन आजकल के बच्चों में पुराने पकवान और पर्वों में कोई खास रुचि नहीं रह गयी है। उनके लिये सबसे बड़ा मनोरंजन मोबाइल और ओटीटी प्लेटफार्म है।

भुलाये नहीं भूलते बचपन के सुहाने दिन
ये सब देखकर मुझे अपना बचपन याद आ गया। कैसे दौड़ भाग कर होली का मजा लेता था। उन दिनों बोतल वाली पिचकारी का काफी चलन था। पिचकारी को बोतल के अंदर फंसा कर दूसरों पर रंग फेंकते थे। लेकिन कभी कभी ठीक होली वाले दिन ही पिचकारी दांव दे जाती और हम लोग मन मसोस कर रह जाते। इसलिये होली से कुछ दिनों पहले ही पिचकारी मुआयना कर उसकी कमियां दूर करवा लेते थे। पिचकारी खराब होने की स्थिति में सिर्फ मग और बाल्टी ही विकल्प रह जाते थे।Holi 2024
बच्चों में आज भी रंगों का जोश
आज के समय में तो गली मोहल्लों में सड़क किनारे पिचकारियां और रंग बेचने वालों की संख्या बढ़ जाती है। आजकल एक बात तो साफ हो गयी है कि दुकान किसी भी चीज की हो लेकिन होली दीपावली पर संबंधित दुकाने लोग लगा लेते हैं। बैठे बैठे हजार दो हजार की नफरी हो जाती है। वैसे भी आजकल रेजिडेंशियल कालोनी में घर के आसपास ही घरों में प्रोविजनल स्टोर्स खुल जाते हैं। आजकल धंधा प्राइम हो गया है दूसरी चीज मिलावटी खाद़्य सामग्री की भरमार है कोई भी वस्तु शुद्ध नहीं मिलती है यहां तक कि दूध, ख़ाद्य तेल और अनाज हर वस्तु में मिलावट की जाती है। पहले घरों में औरतें चिप्स पापड और गुझिया बना लेती थी। लेकिन आजकल इन सब पकवानों के लिये घर की औरतों के पास समय नहीं होता है। कारण यह है कि मियां बीवी दोनों ही सर्विस में होते हैं तो समय कहां से होगा। छुट्टी मिलने पर सिर्फ आराम कर सकते है। केवल छोटे बच्चे ही रंगों से सराबोर हो कर गलियों में होली मनाते दिख जाते हैं।
गुझिया खाने की चाहत रहती थी
होली जलने के बाद से गुलाल खेलना शुरू हो जाती थी। तब होली चार बजे सुबह हो जाती थी। जलती होली के बीच कुछ बच्चे अपने घरों से आलू शकरकंद आदि भूनने को ले आते थे। कुछ लेोग होली की आग से अपने घरोंं का चूल्हा जलाते थे ऐसी पुरानी प्रथा थी। हम सब बच्चे घर में चाय के साथ कुछ खा कर होली खेलने को निकल जाते थे। मम्मी निकलने से पहले हाथ पैर और चेहरे पर नारियल का तेल चुपड़ देती थीं ताकि रंग आसानी से निकल जाये। दोपहर तीन बजे तक हम सब बच्चे आस पास के घर लौटते थे। पेट भर जाता था लेकिन नीयत नहीं भरती थी। चिप्स पापड़ और कचरी ही सब जगह खाने को मिलती थी। एक यही मौका होता जब लड़कों को हर घर में घुसने का मौका मिलता था। खास तौर से उन घरों में जहां जवान लड़कियां होती थी।