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दीपावली के खट्टे मीइे अनुभव
एक वो दीवाली होती थी और एक आज की दीपावली होती है। तब महीनों पहले इसका इंतजार होता था। घरों की रंगाई पुताई और साफ सफाई का दौर चला करता था। उस समय भले ही ये सब अच्छा नहीं लगता था। क्यों कि उस समय तो बचपन था हर समय खेल कूद ही अच्छा लगता था। ये सब बिल्कुल भी अच्छा नही लगता था। मम्मी और पापा दो तीन दिनों तक घर की सफाई और धुलाई में बिजी रहते थे। दीपावली की तैयारी दशहरे के आस पास से शुरू हो जाती थी। क्यों कि जो लोग पुतइया से रंगाईपुताई करवाते उन्हें तो इस बात की चिता रहती कि दीपावली के समय लेबर नहीं मिलने की आशंका रहती। हमारे घर पर घर की रंगाई और सफाई खुद करना पसंद करते थे। क्यों कि उन्हें किसी का किया काम पसंद नहीं आता था।
हमारे बचपन की दीपावली
बचपन में हम सभी को दीपावली का बड़ा बेसब्री से इंतजार रहता था। दशहरे के बाद दीपावली ही ऐसा पर्व था जिसने हम बच्चों को घूमने की आजादी मिलती थी। दशहरे मे तो 10 दिनों तक रात के समय घूमने की पूरी आजादी रहती थी। वर्ना आठ बजे के पहले घर के अंदर होने की हिदायत थी। पापा के हुक्म के किसी की भी नहीं चलती थी। उन दिनों पापा और छोटा भाई कभी गणेश लक्ष्मी और पटाखों की दुकान लगा लेते थे। इससे हम बच्चों की घूमने की आजादी पर रोक लग जाती थी। वैसे तो दुकान पर छोटा भाई ही बैठता था लेकिन कभी कभी वो घर या सामान लाने के लिये बाजार जाता तो मुझ बैठाया जाता था। वैसे भी दुकानदारी करना मेरे बस की बात नहीं थी। बड़ी बहन को दुकान पर नहीं बैठाया जाता था। दीपावली को मम्मी हवन करती थी। हवन के समय में घर के सभी सदस्यों के साथ आसपास के लोग भी शामिल हुआ करते थे। मम्मी का आस पास में काफी दबदबा था, क्योंकि वो बहुत ही मिलनसार और सबसे ज्यादा पढ़ी लिखी थीं। पूजा के बाद हम सब लोग आस पास के घरों में सभी बड़ों के पैर छू कर आशीर्वाद लेने जाते थे। लेकिन आज वो कल्चर खत्म सा हो गया है। पैर छू कर आशीर्वाद को ओल्ड फैशन माना जाता है। आजकल बच्चे अपने मां पिता के पैर भी बड़ी मुश्किल से छू कर आशीर्वाद लेते हैं। इसके बाद सभी बच्चे पटाखे जलाने को प्रस्थान कर जाते थे। उन दिनों सीको कंपनी के पटाखे काफी फेमस थे। बाजार और ग्राहकों में उनकी बड़ी डिमांड हुआ करती थी। बच्चे अनार, फुलझड़ी और महताब आदि छुड़ाने में रुचि रखते थे। लड़कों को रस्सी बम, लहसुन, टाइम बम, राकेट और और जहाज में रुचि रहती थी। छोटा भाई बम चलाने में काफी पारंगत था। अक्सर बम हाथ में लेकर चलाया करता था। दो एक बार बम हाथ में ही फट चुका था। वो दिन याद कर के आज भी चेहरे पर मुस्कान आ जाती है।

आज कल की दीपावली
आज हम बड़े बूढ़े हो चले हैं। बच्चों में भी आतिशबाजी में कम ही दिलचस्पी रह गयी है। मनोरंजन के नाम पर मोबाइल ही रह गया है। मोबाइल दूरसंचार का माध्यम कम मनोरंजन का व्यापक साधन बन कर रह गया। मुझे याद है कि जब मैं लखनऊ में रहता था तो दोनों बच्चे काफी छोटे थे। आज बड़ा बेटा 32 साल का हो गया है। दूसरी 24 साल का है। बड़े की शादी हो गयी है और छोटा बेटा भी शादी लायक है। मुझ याद है कि बड़ा बेटा जब चार पांच साल का था तो बंदूक चलाने का शौकीन था। लेकिन धमाके से बहुत डरता था। मुझे आज भी याद है कि वो रजाई में मुंह छुपा कर पिस्तौल चलाया करता था। छोटा बेटा दीपावली के दिनों में बंदूक चलाने का बहुत शौकीन था। उनकी मां अमीनाबाद से थोक बाजार से पटाखे और बंदूक दिला कर लाती थी। मुझे याद है कि एक बार अमीनाबाद से पिस्तौल और पटाखे लेकर स्टेशन पर गोमती नगर आने को पहुंचे। अभी ट्रेन में बैठे ही थे कि छोटे बेटे की पिस्तौल चलना बंद हो गयी। घर तक पहुंची भी नहीं कि टूट गयी। फिर से उसके लिये बंदूक खराीदी और घर आये। अक्सर यह देखा गया है कि दीपावली के पहले ही उनकी बंदकें काम करना बंद कर देती थीं। उसके बाद वहीं देसी आइडिया यानि हाथ में हथौड़ी और बस बंदूक की टिकुली दे दना दन। यही एक हथियार रहता जिससे बच्चे अपनी दीपावली मनाया करते थे। आज आलम यह है कि दोनों ही बच्चों को न तो पटाखों से मतलब है और न किसी और प्रकार का शौक। बड़ा बेटा अपनी घर ग्रहस्थी में बिजी है। छोटे को आफिस से घर और घर से आफिस के अलावा कुछ भी नहीं सूझता है।