कल लाटसाहेब का मन हुआ कि शहर के सारे दवाखाने खुलवाए जाएं। इकठ्ठा होने की मनाही होने के बावजूद शहर भर के सारे हकीमों को एक खेल के मैदान में हाजिर होने का हुक्म सुनाया गया।हलाली के पहले बकरों का बाज़ार सजाया गया। कुछ दरबारी हकीमों ने फरमान की पूरे शहर में बार बार मुनादी भी करवा दी। धीमे धीमे फुसफुसाहट हुई, कि महामारी के इस कातिल वक्त में जब दो लोग भी एक साथ इकठ्ठे नहीं हो रहे हैं, ये मेला किस तरह से वाजिब है?
लाटसाहेब तो ठहरे लाटसाहेब, उनके मन की थाह तो कौन ले सकता है। पर ये सरकारी हकीम!! “सरकारी” शब्द का बोझ इनके “हकीम” पर भारी पड़ा। फिर उसके बाद तो जैसे लाटसाहेब की हिम्मत और खुल गई और ऐसे खुली कि कितनी देर मरीज को देखना है, कैसे देखना है, कहां बैठाना है, नकाब की पहनावट कैसी होना चाहिए और हकीम के मुलाज़िम को नकाब की फिटिंग वगैरह कैसे चैक करना है, सब बताते गए।
इतने में ही लाटसाहेब के पीछे से हवा का एक झोंका आया और साहेब के दिमाग में बिजुरिया कौंधीं। तपाक से बोले, हवा का रूख हकीम से मरीज की तरफ रखा जाए। हुक्म की तामील हो। और फिर सरकारी हकीमों ने वाह उस्ताद वाह के ऐसे नारे लगाए, कि पूरा शहर हिल गया।
हुक्म की तामील हो, नहीं तो हकीमों को जेल में डाल दिया जाए, इनकी हकीमी की डिग्री छीन ली जाए। इस हुक्म की मुनादी सरकार और सरकारी हकीमो ने ऐसे करी, कि सभी हकीमों को दिन में तारे दिखा दिए। अब हकीम अपने दवाखाने के बाहर एक चौकीदार ढूंढ रहा है, जो मरीज के साथ आने वाले लोगों को बाहर ही रोकेगा, एक मुलाजिम जो इस माहौल में मरीजों के मास्क चेक करने का कलेजा रखेगा, एक हवादार पंखा या वातानुकूलन यंत्र, जो एक ही सरकारी दिशा की हवा बहाएगा। और छोटे दवाखाने वाले हकीमों को जरा छत या दीवार वगैरह तोडकर थोडा थोडा हथौड़ा चलाकर दवाखाने को लाटसाहेब के मनमाफिक बनाना पडेगा। नहीं तो, डिग्री छीन ली जाएगी, जेल भेज दिया जाएगा, याद है न! कि भेजें सरकारी हकीम, याद दिलाने को।
बेचारे हकीम को खुद खतरा ए जान है। बीमारी से नहीं, साहेब और उनके हुक्म बजाने वाले हकीमों से। अब न घर के रहे न घाट के। जान सांसत में है। समझ नहीं आ रहा कि खुद का इलाज करें या मरीज का। इलाज की जरूरत साहब ए आलम और सरकारी हकीमों के दिमाग को है, पर बिल्ली के गले में कौन चूहा घंटी बांधे। इसलिए जमूरों, मदारी की ढोलक की थाप पर नाचते रहो, नाचो, नहीं तो कोड़े पड़ेंगे।
पर लाटसाहेब और उनके सरकारी हकीमों को कोई यह बता दे, उपरवाले के घर में देर है, अंधेर नहीं। हकीमों को कोड़े मारने वालों, याद रखना, तुमको कीड़े पडेंगें।
– डॉ पीयूष जोशी