
लेकिन शिवराज सिंह सरकार तो अपने ही मज़दूरों का खून निचोड़ने की पूरी तैयारी कर चुकी है। एमपी में श्रम कानून बदले जा रहे हैं और राज्य की बिकाऊ मीडिया इसका प्रोपोगेंडा करने में मस्त है।प्रस्तावित कानून के मुताबिक, जो फैक्टरियां 40 या इससे कम मज़दूरों को काम देगी, उन्हें मज़दूरों के स्वास्थ्य या जान की सुरक्षा के लिए कोई जतन नहीं करने होंगे।
अगले 1000 दिन में शुरू होने वाली फैक्टरियों में तो श्रम कानून लागू ही नहीं होंगे। मज़दूरों के कल्याण के लिए बने मंडल में प्रति मज़दूर 80 रुपये देने की भी ज़रूरत नहीं है। मीडिया तो सरकारात्मक हो ही गई है, लेकिन श्रमिकों के संगठन भी चुप हैं। कांग्रेस वाला इंटक शायद राह देख रहा है कि राहुल गांधी की आकाशवाणी हो तो वे ट्वीट करें। मज़दूरों का कोई माई-बाप नहीं है। नेता मोटा माल दबाकर बुझी हुई बाती की तरह घर बैठे हैं।
लॉक डाउन में सब-कुछ लुटा चुके मेहनतकश तबके को अब शायद अपने खून का आखिरी कतरा भी हम जैसे सुविधा भोगियों के लिए न्योछावर करना होगा। फिर भी हमें शर्म नहीं आएगी और हम प्रवासी मज़दूरों के दर्द पर घड़ियाली आंसू बहाते रहेंगे। भारत की अवाम को इस समय सिविल नाफरमानी की सख़्त ज़रूरत है। गांधी आज बहुत याद आ रहे हैं।
लेखक व पत्रकार सौमित्र रॉय