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2019 में बहुत नेताओं ने अपनी पार्टियां बदल कर दूसरी पार्टी का दामन थाम लिया था। यह सोच कर कि यहां नहीं तो वहां अपना भला हो जायेगा। लेकिन कुछ तो खुश हो गये लेकिन कुछ लोग अभी भी पाला बकी सोच रहे है। बदलने की सोच रहे है। पार्टी बदलने वालों में अपने बिहारी बाबू उर्फ शाटगन साहब भी थे। उन्होंने अपनी पहली राजनीतिक पार्टी बीजेपी से नाता तोड़ते हुए कांग्रेस से दोस्ती कर ली और पिछला आम चुनाव भी लड़ा। इस बार कांग्रेस की टिकट पर शत्रुघ्न सिन्हा स्वयं पटना से तो उनकी पत्नी सिन्हा ने कांग्रेस के टिेकट पर लखनऊ से आम चुनाव लड़ा। इत्तेफाक से दोनों ही जगहों पर बिहारी और पूनम चुनाव में हार गये। बिहारी बाबू को उनके इलाके के भाजपा नेता जो उस वक्त कानून और आईटी मिनिस्टर थे, ने उन्हें भारी अंतराल से हराया। इससे साफ जाहिर हो गया कि जनता दलबदलुओं को तवज्जों नहीं देती चाहे वो कितना भी बड़ा तुर्रम खां हो। पूनम सिन्हा पहली बार किसी राजनीतिक चुनाव में उतरीं थी। इसलिये उन्हें शायद इतना बुरा नहीं लगा होगा। लेकिन बिहारी बाबू के लिये तो यह हार काफी मायने रखती है। पिछले आम चुनाव उन्होंने भाजपा के टिकट पर ही जीते थे। कांग्रेस में भी सोनिया राहुल के आगे किसी की भी नहीं चलती चाहे पार्टी रसातल में में पहुंच जाये। ऐसे में शत्रुघ्न जैसे दर्जनों पुराने कांग्रेसी नेता हैं जो बस आला कमान के आगे हाथ जोड़े खड़े रहते हैं। इन हालातों में बिहारी बाबू ने शायद किसी अन्य राजनीतिक दल में जाने का मन बना लिया है। सूत्र बता रहे हैं कि ममता बनर्जी के साथ मिलकर बिहारी बाबू आगे की राजनीति चमका सकते हैं। वैसे भी उनके पसंदीदा पूर्व केन्द्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा ने टीएमसी में अपनी पकड़ कर ली है। वो अब विधिवत टीएमसी में उपाध्यक्ष पद पर है। वैसे भी बिहारी बाबू ममता दीदी का खुलआम समर्थन करते दिखते थे उनके साथ मंच साझा करते थे जबकि वो बीजेपी के सांसद थे।

कांग्रेस का भी बहुत हाल अच्छा नहीं है। पिछले सात सालों में लगातार मिल रही हार से कांग्रेसी नेता भी मायूस हो चुके है। इस बीच मध्यप्रदेश, कर्नाटक और पुडुचेरी की सरकारें उन्होंने खोई हैं। बड़ी मुश्किल से पंजाब में उनकी सरकार पांच साल पूरे करने जा रही है। चुनाव सिर पर हैं और अपने ही पार्टी को कमजोर करने में जुटे है।

इतना ही नहीं अटलजी की सरकार में उन्हें परिवार कल्याण मंत्री भी बनाया गया। लेकिन जब से मोदी और शाह ने देश व पार्टी पर कब्जा जमाया है तब से अच्छे अच्छे नेता और मंत्री की सिट्टी पिट्टी गुम हो गयी है।लेकिन बिहारी ने अपना वही रवैया अपनाये रखा। इससे मोदी और शाह दोनों ही खफा हुए। बिहारी बाबू अटल के आगे किसी को नहीे तवज्जो देती। यह बात पीएम मोदी और शाह को नागवार गुजरती लेकिन उन्होंने कुछ ऐसा नहीं किया जिससे यह जाहिर होता कि वो लोग पुराने नेताओं को पसंद नहीं करते है। उधर बिहारी बाबू अपने ही अंदाज में मोदी और शाह पर बयान देने से नहीं चूकते। लेकिन पार्टी अंदर ही अंदर शत्रुघ्न सिन्हा के विरोधियों की संख्या बढ़ने लगी। उन्हीं के उकसाने पर मोदी और और उनके समर्थकों ने बिहारी बाबू को साइड करना शुरू कर दिया। किसी भी खास बैठकों मंे बिहारी बाबू को बुलाया जाता था। ऐसे माहौल में शत्रुघ्न सिन्हा को लगने लगा कि अब पार्टी में उनकी कोई साख नहीं है। उन्हें पार्टी छोड़ देनी चाहिये। लेकिन वो चाह रहे थे कि पार्टी उन्हें निकाल दे ताकि पुराने नेता इससे नाखुश हो जायें। लेकिन पार्टी ने ऐसा नहीं किया लेकिन ऐसे हालात बना दिये कि बिहारी बाबू ने भाजपा से निजात पा ली। भाजपा ने धीरे धीरे कर के बिहारी बाबू के पसंदीदा बीजेपी नेता यशवंत सिन्हा, एलके आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, और कल्याण सिंह सरीखे नेताओं को किनारे लगाया फिर यह संदेश दिया कि मोदी सरकार की नाीतियों और पीएम की आलोचना करने वाले के लिये न तो सरकार में कोई जगह है और न ही पार्टी में।

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