रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कालजयी रचना ‘कृष्ण की चेतावनी’ का यह अंशः “जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है”। आज की परिस्थितियों में तबलीगी जमात के धर्मांध मौलानाओं, ज़ाहिल अनुयाईयों और उनके गँवार परिजनों पर सटीक बैठता हैं। देश में औपचारिक रूप से घोषित सम्पूर्ण लॉकडाउन का 22 वां दिन हैं। लगभग 1 महीने से लगातार दूर-संचार माध्यमों से मीडिया द्वारा चीख़-चीख़ कर कोरोना वाइरस के खतरे से प्रत्येक भारतीय को अवगत किया जा रहा है। सामाजिक दूरी क्यों जरूरी है ? सीधी-सरल भाषा में, विज्ञापनों से और गीत-संगीत द्वारा समझाया जा रहा है। प्रधान सेवक द्वारा हाथ जोड़कर घर में रहने और जीवन को बचाने की गुहार लगायी जा रही है, लेकिन “ढाक के वही तीन पात” वाला मुहावरा चरितार्थ हो रहा है।
एक ओर मजबूर असहाय श्रमिक समुदाय हैं जो दो वक्त की रोटी और सुरक्षित छत हेतु विद्रोह के लिए विवश हो गया। घर-परिवार से दूर भूखे पेट ने उन्हें याद दिलाया कि ‘बिना रोये तो माँ भी दूध नहीं पिलाती’, फिर शासकीय कर्मचारियों और अधिकारियों से मौन अपेक्षा क्यों? शायद इसीलिए एकत्रित होकर पेट की आग को बुझाने और ‘नियोजक कुंभकरणों’ को नींद से जगाने के लिए सामाजिक दूरी के आह्वान की धज्जियां उड़ाते हुये सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर हो गए। पाठकों के मन में भी इन लोगों के लिए संवेदना होगी, पीड़ा होगी और आत्मा चित्कार रही होगी। हताशा और निराशा के कारण इनकी उग्र हुई मानसिकता को समझते हुये, ऐसे लाचार लोगों पर क़ानूनी कार्यवाही करने की अपेक्षा अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति करने की श्रेयष्कर है।
भविष्य के गर्त में क्या छिपा है कोई नहीं जानता, लेकिन आने वाली पीढ़ियों द्वारा इतिहास के पन्नों में राष्ट्र और मानवता के दुश्मनों के रूप में ऐसे लोगों से घृणा अवश्य की जाएगी | ऐसे लोगों का पतन इतिहास में उनके आत्मघाती कृत्य ही रहे हैं। अपनी आन-बान और शान के दुश्मन यह स्वयं ही हैं, यदि ऐसा नहीं होता तो क्या आज यह जमाती अपने ही रक्षको के भक्षक बनते ?
प्रो. सरोज व्यास








